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Wednesday, December 12, 2007

इस गवार को

हो भूख से बेजार बढ़ाकर जब कोई हाथ
उतारता स्वर्ण मुद्रिका जल रही चिता के हाथ
तो इस गँवार को भी यह बात समझ आती है ।

लेकिन रहने वाले ऊँची अट्टालिकाओं में
सेकते हैं रोटियाँ जब जल रही चिताओं में
तो इस गँवार को भी यह बात गवारा नहीं है ।

भरसक मेहनत के बाद जब एक श्रमिक के हाथ
जुटा पाते न रोटी दो वक्त की एक साथ
चुराना एक रोटी का मुझे समझ आता है ।

माँ, पत्नी की लाश पर कर रहे हैं जो नग्न नृत्य
जमीन जायदाद खातिर कर रहे जो भर्त्स कृत्य
यह बात इस गँवार को नागवार गुजरती है ।

गाँवों में साधन नहीं, कमाई का ठौर नही
शहरों में भाग आते चार पैसे मिलें कहीं
बदहाल सा जीना उनका समझ आता है ।

लेकिन शहरों से जा खेतों पर कब्जा करना
एक साथ सैकड़ों किसानों की जमीन छिनना
मुझे क्या किसी भी गँवार को समझ आता नहीं ।

कलेजे पर रख पत्थर भेज विदेश बच्चों को
स्वर्णिम भविष्य देने की चाहत लाडलों को
बुढ़ापे में खुद को ढोना समझ आता है ।

लेकिन उन लाडलों का क्या जो छीन कर सब कुछ
बेघर कर देते बूढ़े माँ बाप को समझ तुच्छ
गँवार को लगता खूब सयाने वो लाडले हैं ।

पिता का हाथ बँटाता बचपन खेत खलिहान में
माँ का हाथ बँटाता बचपन घरों के काम में
गँवार को क्या समझदार को भी समझ आता है ।

लेकिन बचपन खुद को कांधों पर धर जीता है
होटलों, दुकानों, सड़कों, फैक्ट्रियों में पलता है
लगता गँवार को हुई बेमानी जिंदगी है ।

कायर बन जो जीते हैं, शांति शांति जपते हैं
कातर बोल रखते हैं, अपमान भी सहते हैं
दमन इन जातियों का एक दिन समझ आता है ।

किंतु ब्याघ्र बन जो छोटे राष्ट्र निगल जाते हैं
दूसरे देशों की भी बागडोर चलाते हैं
इस गँवार के पल्ले तो कुछ भी नही पड़ता है ।

नेता बनने से पहले वह खाना खाते हैं
राजनीति में जमने पर बस पैसा खाते हैं
नेताओं का करोड़पति बनना समझ आता है ।

लेकिन आम जनता त्रस्त, अपमान सहती रहे
भूख, गरीबी, जुल्म, भ्रष्टाचार से भिड़ती रहे
देश को बेचें नेता, गँवार समझ पाता नहीं ।

अरे समझदारों ! इस गँवार को भी समझा दो
ऊट पटांग हरकतों को भेजे में घुसवा दो
गर नहीं तो इस गँवार को मूर्ख ही बतला दो ।

कवि कुलवंत सिंह