हो भूख से बेजार बढ़ाकर जब कोई हाथ
उतारता स्वर्ण मुद्रिका जल रही चिता के हाथ
तो इस गँवार को भी यह बात समझ आती है ।
लेकिन रहने वाले ऊँची अट्टालिकाओं में
सेकते हैं रोटियाँ जब जल रही चिताओं में
तो इस गँवार को भी यह बात गवारा नहीं है ।
भरसक मेहनत के बाद जब एक श्रमिक के हाथ
जुटा पाते न रोटी दो वक्त की एक साथ
चुराना एक रोटी का मुझे समझ आता है ।
माँ, पत्नी की लाश पर कर रहे हैं जो नग्न नृत्य
जमीन जायदाद खातिर कर रहे जो भर्त्स कृत्य
यह बात इस गँवार को नागवार गुजरती है ।
गाँवों में साधन नहीं, कमाई का ठौर नही
शहरों में भाग आते चार पैसे मिलें कहीं
बदहाल सा जीना उनका समझ आता है ।
लेकिन शहरों से जा खेतों पर कब्जा करना
एक साथ सैकड़ों किसानों की जमीन छिनना
मुझे क्या किसी भी गँवार को समझ आता नहीं ।
कलेजे पर रख पत्थर भेज विदेश बच्चों को
स्वर्णिम भविष्य देने की चाहत लाडलों को
बुढ़ापे में खुद को ढोना समझ आता है ।
लेकिन उन लाडलों का क्या जो छीन कर सब कुछ
बेघर कर देते बूढ़े माँ बाप को समझ तुच्छ
गँवार को लगता खूब सयाने वो लाडले हैं ।
पिता का हाथ बँटाता बचपन खेत खलिहान में
माँ का हाथ बँटाता बचपन घरों के काम में
गँवार को क्या समझदार को भी समझ आता है ।
लेकिन बचपन खुद को कांधों पर धर जीता है
होटलों, दुकानों, सड़कों, फैक्ट्रियों में पलता है
लगता गँवार को हुई बेमानी जिंदगी है ।
कायर बन जो जीते हैं, शांति शांति जपते हैं
कातर बोल रखते हैं, अपमान भी सहते हैं
दमन इन जातियों का एक दिन समझ आता है ।
किंतु ब्याघ्र बन जो छोटे राष्ट्र निगल जाते हैं
दूसरे देशों की भी बागडोर चलाते हैं
इस गँवार के पल्ले तो कुछ भी नही पड़ता है ।
नेता बनने से पहले वह खाना खाते हैं
राजनीति में जमने पर बस पैसा खाते हैं
नेताओं का करोड़पति बनना समझ आता है ।
लेकिन आम जनता त्रस्त, अपमान सहती रहे
भूख, गरीबी, जुल्म, भ्रष्टाचार से भिड़ती रहे
देश को बेचें नेता, गँवार समझ पाता नहीं ।
अरे समझदारों ! इस गँवार को भी समझा दो
ऊट पटांग हरकतों को भेजे में घुसवा दो
गर नहीं तो इस गँवार को मूर्ख ही बतला दो ।
कवि कुलवंत सिंह
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Wednesday, December 12, 2007
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