Sunday, May 11, 2008

गज़ल - चले जाते हैं लोग

प्यार का इजहार करके क्यूँ चले जाते हैं लोग ।
कैसे जी पाते हैं वह हम तो लगा लेते हैं रोग ॥

चांद तारों को मैं जब भी देखता हूं साथ साथ,
यार मेरा लगता लौटेगा मिटाकर अब वियोग ।

कैसे भूलूँ उन पलों को साथ जो हमने बिताए,
रब की धरती पर मिला आशीष था कैसा सुयोग,

आ गले से लग ही जाओ, चंद सांसे ही बची हैं,
दो मुझे जीवन नया, अपना मिटा लो तुम भी सोग ।

याद तुमको गर नही हम, था जताया प्यार तुमने,
जिंदगी में तुम किसी के, अब न करना यह प्रयोग ।

कवि कुलवंत सिंह

14 comments:

Anonymous said...

dav

Anonymous said...

Good One's

L.Goswami said...

sunadar gajal.jari rkhen..

रंजू भाटिया said...

बहुत खूब कवि जी

Kavi Kulwant said...

Thanks a lot dear friends!

Unknown said...

शाब्बास क्या बात कही है आपने. ये काव्य तो मेरे दिल को छु गया कवि कुलवंत जी.

नीरज गोस्वामी said...

कुलवंत जी
आप का रदीफ़ को काफिये बना कर नए शब्दों के साथ किया गया प्रयोग पसंद आया. बधाई.
नीरज

Anonymous said...

bahut khoob hai

आनन्द सिंह said...

आप का ये प्रयोग अति सुंदर है!.......यूं ही जारी रखिये शुभकामनाये!

Udan Tashtari said...

बढ़िया है. लिखते रहिये.

Kavi Kulwant said...

Thanks a lot my dear friends!

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

प्यार का इजहार करके क्यूँ चले जाते हैं लोग ।
कैसे जी पाते हैं वह हम तो लगा लेते हैं रोग ॥

achchha matlah hai.achchhee ghazal ke liye aapko badhaayee...
- Pramod Kumar Kush 'tanha'

Kavi Kulwant said...

प्रमोद जी आप का हार्दिक धन्यवाद..

सुनीता शानू said...

सचमुच दिल को छू गई आपकी ये गज़ल...१४ मई से २० मई तक दार्जीलिंग गई हुई थी आकर पढ़ा तो आपकी खूबसूरत गज़ल नजर आई...बहुत-बहुत बधाई आपको...