Thursday, May 22, 2008

सती - शिव

(पौराणिक कथा पर आधारित)

शिव को योग्य अपने दक्ष न थे मानते,
ब्याल, भभूत से लिपटे गवार जानते,
सती - महेश्वर का परिणय न थे चाहते,
अपमानित करने का अवसर न चूकते ।

किंतु बसा शिव हृदय, बलिहारी थी सती,
मोहित बेसुध सदा इठलाती थी सती,
अपलक नयनों से छवि निरखती थी सती,
मिला पति महादेव प्रण कर खुश थी सती ।

दक्ष राजा ने यज्ञ का आयोजन किया,
न्योता सभी देवों, ऋषि, मुनियों को दिया,
प्रजापति, विष्णु को विशिष्ट सम्मान दिया,
पुत्री सती, दामाद शिव को न याद किया ।

सती को ज्ञात हुआ, हवन रखा पिता ने,
आग्रह किया पति से चलने का हवन में,
जग रीत बता कर समझाया शंकर ने,
’बिना बुलाए मान नही’, कहा नाथ ने ।

सती ने नाथ से प्यार से फिर हठ किया,
शिव तो अटल थे, सती को भी मना किया,
सती पर मानी नही, जिद कर ठान लिया,
पहुँची महल पिता के, घर निज मान लिया !

पहुँच कर हवन में सभी को प्रणाम किया,
तात से फिर जी भर सती ने गिला किया,
निमंत्रण न भेजने का उलाहना दिया,
हवन में शंभू को क्यों नही याद किया ?

महलों के अयोग्य दक्ष ने करार दिया,
अपशब्द कहे शंकर का अपमान किया,
भूतों का नाथ कह शिव तिरस्कार किया,
मूरत बना शिव की द्वार पर खड़ा किया ।

स्तब्ध सती देख कर नाथ का अपमान,
निज नाथ आए याद फिर दिया था ज्ञान,
न जाना बिन बुलाए मिलता नही मान,
बिखर गई टूट ! पराई हुई संतान ?

सह सकी सती नही भोले का अपमान,
प्रण किया त्याग दूंगी शरीर ससम्मान,
जाऊँगी वापिस, लेकर नही अपमान,
भरी सभा किया फिर अग्नि देव आह्वान ।

राख हुई जल सती छोड़ा यह संसार,
सुनकर घटना हुए, क्रुद्ध सती भरतार,
आ पँहुचे महेश फिर दक्ष के दरबार,
ताण्डव किया वहाँ, मच गई हा-हा-कार ।

नष्ट हुआ समूल, दक्ष को किया तमाम,
ऋषि, मुनि, देव गण करते सभी त्राहिमाम,
ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सहमें सोच परिणाम,
अनुनय कर शांत किया, शिव पहुँचे स्वधाम ।

कवि कुलवंत सिंह

2 comments:

राकेश खंडेलवाल said...

सुन्दर वर्णन

Udan Tashtari said...

उम्दा रचना. जारी रखें.