भाषा, मजहब, जात के नाम,
ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य हो काम,
मक्का, मदीना, तीर्थ हो धाम।
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
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बांग्ला, द्रविण, उर्दू, हिंदी,
मुस्लिम, हिंदू, इसाई, यहूदी,
सिया, सुन्नी, वहाबी, विर्दी,
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
.
ब्राह्मण - सूद्र - कायस्थ भेदभाव,
कायम समाज पर नासूर घाव,
संकीर्णता का करें परित्याग,
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
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क्यूं न हम मिलकर लड़ें
उन दूरियों से जो करती अलग-
मानव को मानव से,
स्वार्थ, लोलुपता, भ्रष्टाचार से,
संत्रास, गरीबी, भुखमरी से,
अशिक्षा, अज्ञान, अंधकार से,
लड़ना ही है क्या इंसान की फितरत?
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आओ हम सब मिलकर लड़ें-
सामाजिक कुरीतियों से,
प्राकृतिक आपदाओं से,
नैराश्य के अंधेरे से,
जीवन में भरें सबके प्रकाश।
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कवि कुलवंत सिंह
Wednesday, May 23, 2007
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8 comments:
बहुत अच्छी भाव्नायें हैं.. उम्मीद करती हूं की.. लोगों के दिल को छूयेंगी..
क्या कहने बढ़िया है ..कवि जी...लिखते रहें...
बहुत सुन्दर लिखा है आप ने, मनुष्य को मनुष्य से अलग करने में वो लोग है जो धर्म के नाम पर
राजनीति करते हैं.
आम आदमी का इससे कुछ लेना देना नही है
लिखते रहिये
अच्छी शिक्षाप्रद रचना है}्बधाई।
हमारा देश तो जातिवाद-संप्रदायवाद-धर्मवाद आदि संक्रमणों से पोषित होता है और यह कविता दर्पण है जो सामने सच्चाई प्रस्तुत कर रही है…।
सुंदर रचना.
चलो लड़ाई शुरू! आपका समय शुरू होता है अब!
Dear Dr. K W Singh:
The "Ladai" poem is very much sensible towards the todays society. I like the content of this poem as well point of direction which you are trying to bring among us. I really appreciate the poem and these fighting should stop. Today, our social and cultural values are getting lost. The Caste base humanity is taking place which has no long term values.
Ram B Gautam
International Hindi Association
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