जग ये जैसे रो रहा है
मातम घर घर हो रहा है .
गीत कौन सा मैं गाऊँ ?
कैसे दुनिया को बहलाऊँ ?
देने सुत को एक निवाला
बिक जाती राहों में बाला .
कौन धान की हांडी लाऊँ ?
भर भर पेट उन्हें खिलाऊँ ?
खेल अनय का हो रहा है
न्याय चक्षु बंद सो रहा है .
कौन प्रभाती राग सुनाऊँ ?
इस धरा पर न्याय जगाऊँ ?
दो कौड़ी बिकता ईमान
’क्यू’ में खड़ा हुआ इंसान .
कौन ज्योति का दीप जलाऊँ ?
मानस को अंतस दिखलाऊँ ?
सत्य सुबकता कोने में
झूठ दमकता पैसे में
कौन कोर्ट का निर्णय लाऊँ ?
झूठ सच का अंतर बतलाऊँ ?
कवि कुलवंत सिंह
Sunday, October 18, 2009
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11 comments:
सत्य सुबकता कोने में
झूठ दमकता पैसे में
बहुत भावमय और सामयिक रचना
bahut hi achchi aur saarthak rachna.....
aapko deepawali ki haardik shubhkaamnayen....
बहुत ही भावपूर्ण बिंदास रचना . दिवाली शुभकामना के साथ.
सामयिक व बढिया रचना है। आज कल यही देखने मे ज्यादा नजर आता है।
बेहद भावपूर्ण रचना.
सुन्दर रचना है यह तो।
भइया-दूज की शुभकामनाएँ!
badhiya hai.
गीत कौन सा गाऊँ? विचारप्रधान सरस गीत हेतु साधुवाद.
जब आशा से अधिक निराशा.
गुमी असत्य की ही परिभाषा.
गांधारी ने मूँदे नयना-
धृतराष्ट्रों से हुई हताशा.
तब आवश्यक दीप जलाऊँ.
सत-शिव-सुन्दर गाऊँ..
सत्य सुबकता कोने में
झूठ दमकता पैसे में
कौन कोर्ट का निर्णय लाऊँ ?
झूठ सच का अंतर बतलाऊँ ?
SATYA KE SAATH MAZBOORI DARSHATI SARTHAK RACHNA KE LIYE BADHAAI.
Wah.....वाह...
जग ये जैसे रो रहा है
मातम घर घर हो रहा है .
गीत कौन सा मैं गाऊँ ?
कैसे दुनिया को बहलाऊँ ?
inhi panktiyon mein are jahan ka dard simat aaya hai........ek bahut hi behtreen aur umda rachna.
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