कब हटेगी कालिमा इस रात की ।
कब दिखेगी लालिमा अब प्रात की ॥
आज सूरज क्यों उदित होता नही ।
अरुण प्राची आज मुसकाता नही ॥
रात्रि से भयभीत है मानव धरा ।
काल के आगोश से कितना डरा ॥
इस निशा का अंत कब होगा भला ।
क्रूर निशि ने यूँ लगे पकड़ा गला ॥
बन भुजंग है डस रही विभावरी ।
लील लेगी जग को बन निशाचरी ॥
यूँ लगे संहार जग का पास है ।
सृष्टि के अवसान का आभास है ॥
सुरसा सा मुँह बाये है यामिनी ।
अब न कर दे राख बन कर दामिनी ॥
ध्वंस है अनिवार्य लगता इस क्षपा ।
अंतहीन रजनी से डरती प्रभा ॥
रात = रात्रि = निशा = निशि = विभावरी = यामिनी = क्षपा = रजनी
कवि कुलवंत सिंह
Sunday, January 11, 2009
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18 comments:
बहुत सुंदर रचना....बधाई।
सुंदर रचना
bahut hi sundar kavita hai.
वाह ! यथार्थ के रंगों को गहनता से चित्रित करती इस रचना ने मुग्ध कर लिया. बहुत ही सुंदर भावभरी रचना है. साधुवाद.
अति सुंदर , जन्मदिन की शुभकामनाओ सहित
कुलवंत जी एक बार फ़िर आपने अपनी लेखनी का लोहा मनवाया है इस रचना के माध्यम से....बहुत ही अच्छी रचना...
नीरज
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
बहुत खूब सूरत अभिव्यक्ति है बधाई
कवि सम्मेलनो में भाग लेना, मंच संचालन, क्विज मास्टर, विज्ञान प्रश्न मंच प्रतियोगिता आयोजक, मानव सेवा....wah itane sare gun....? hame to dard kahin dikhai nahi diya....?
aAap sabhi ko haardik dhanyavaad dete huye...
namaskaar kavi ji ,
aajkal aap bahut kam dikhaaii dete hai , lekin ham kahi n kahi se dhoondh hi lenge aapko . aapke geet sunahare bahut pasand aaye , visheshkar isame bajane vaala music :), agar aapki anumati ho to aapki baal-kavitaao ko ham apne blog nanhaman me laga sakte hai kya......?
Vaah...behad sunder rachna....badhai...
kitne sunder shabd use kiya hai aapne...aap ek prerna hain...good luck.
वाह! कितने सुंदर शब्द और भाव भी utane ही सुंदर और दिल को chhune में saksham है.
सुरसा सा मुँह बाये है यामिनी ।
अब न कर दे राख बन कर दामिनी ॥
ध्वंस है अनिवार्य लगता इस क्षपा ।
अंतहीन रजनी से डरती प्रभा ॥ awesome
खम्मा घणी सा
आपका पिरचय सचमुच जोरदार है। कितना कुछ कर लेते है। आपकी गज़लें तेा जैसे मन के घावों को सहलाती सी प्रतीत हेाती है एक दोस्त की तरह। बहुत अच्छा लगा पढकर । धन्यवाद।
आज सूरज क्यों उदित होता नही ।
अरुण प्राची आज मुसकाता नही ॥
और्
यूँ लगे संहार जग का पास है ।
सृष्टि के अवसान का आभास है ॥
ये दोनों ही पंक्ति मेनेजर को भा गइ।
jab mei ye rachna padh hi rahi thi, to abhas ho raha tha ki "ratri" ko kitne alag alag shbdon se vistaar diya hai aapne....poori rachna ko "ratri' ke samanarthak shabdon se goontha hua hai aur kahin bhi kavita apna madhurya nahi kho rahi hai......ye apneap mei bahut sunder si baat hai......
रात = रात्रि = निशा = निशि = विभावरी = यामिनी = क्षपा = रजनी
wah...
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