Thursday, November 20, 2008

ग़ज़ल - नहीं है सांझ

नहीं है सांझ अपनी औ सवेरा ।
न आया रास मुझको शहर तेरा ॥

वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।

वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।

यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।

हुई है खत्म लगता जात आदम,
बना हर घर यहाँ भूतों का डेरा ।

जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।

गुजारा हो नहीं सकता यहां पर,
मुझे लगता नही यह शहर मेरा ।

कवि कुलवंत सिंह

16 comments:

Rachna Singh said...

जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।
bahut sunder

seema gupta said...

हुई है खत्म लगता जात आदम,
बना हर घर यहाँ भूतों का डेरा ।

जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।
" wonderful, very good creation"

Regards

रंजू भाटिया said...

वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।

बहुत खूब ..सच में शहर की भीड़ कुछ इस तरह की बात करती है .अच्छा लिखा है आपने

"अर्श" said...

bahot khub likha hai aapne bahot sundar bhav se bhara hua.... dhero badhai aapko...

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

गुजारा हो नहीं सकता यहां पर,
मुझे लगता नही यह शहर मेरा ।

suraj niklega ,andhera hatega .
ek aur sunder prastuti

नीरज गोस्वामी said...

वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा
बड़े दिनों बाद पढ़ा आप को लेकिन आनंद आ गया...बेहतरीन रचना...बधाई जनाब.
नीरज

kavi kulwant said...

Aap sabhi ko mera naman..hardik dhanyawaad..

महावीर said...

ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी।
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा ।
ये शेर बहुत पसंद आया।
हाँ, देर से लिख रहा हूं: 'चिरंतन' के प्रकाशन और 'काव्य केशरी' की मानद उपाधि से अलंकृत
किए जाने पर अनेकानेक बधाई।

Mumukshh Ki Rachanain said...

भाई कुलवंत जी,

सिन्दर गजल प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
निम्न शेर दिल के बहुत करीब लगा...............

जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।

मेरा मतलब है की जिसके पास दिल है, मानवता में वही विस्वास कर सकता है, वही इनसान कहलाने के लायक है और ऐसे ही किसी रेगिस्तान में बसेरा मिलेगा इंसां का आज के अर्थ प्रधा युग में.

चन्द्र मोहन गुप्त
www.blogspot.com

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

हुई है खत्म लगता जात आदम,
बना हर घर यहाँ भूतों का डेरा ।
जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा ।

shama said...

Behad zabardast peshkashen hain aapki,,,,par isee meleme hame insaanbhi milhi jaate hain...jaanbaaz insaan...
Aapko apne blogpe do lekh padhneka nimantran dene aayee hun. 1)Meree Aawaaz Suno. 2) Ya jazba salamat rahe. Teen anya rachnayen bhi hain,,,haliya hue aatankse karahke likhi huee. Intezaar hai.
Ek documentary banane jaa rahi hu," Jateeywaad, Aatankwaad Aur Suraksha Yantranako" leke,abhyaspoorn magar jhakjhorke rakh denewalee.

Divya Narmada said...

सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम

खोलकर आँख देखा-था सवेरा.
विश्व इक नीड़ था मेरा बसेरा.

सकल वसुधा मुझे कुटुंब लगती
न लगता कोई तिनका मुझे मेरा.

न लाया कुछ, न कुछ ले जाऊंगा मैं.
समेटे हूँ महज यादों का डेरा.

नोच लें मांस सारा चील-कौए.
छोड़ दें नयन जिनमें चित्र तेरा.

मिटे आदम सकें हम आदमी बन.
ह्रदय पर हरि को हो हँसकर उकेरा.

गले लगकर मुझे दुःख-दर्द दे जा.
देख मुड़कर, 'सलिल' ने तुझे टेरा.

नेह की नर्मदा में जब नहाता
'सलिल' लगता कि माँ ने हाथ फेरा.

Kavi Kulwant said...

thanks dear friends.. for your love and affection..

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नीलिमा शर्मा Neelima Sharma said...

वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।

यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
i'm speechless

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma said...

वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा ।

यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा ।
i'm speechless