बड़े हम जैसे होते हैं तो रिश्ता हर अखरता है ।
यहां बनकर भी अपना क्यूँ भला कोई बिछड़ता है ।
सिमट कर आ गये हैं सारे तारे मेरी झोली में,
कहा मुश्किल हुआ संग चांद अब वह तो अकड़ता है ।
छुपा कान्हा यहीं मै देखती यमुना किनारे पर,
कहीं चुपके से आकर हाथ मेरा अब पकड़ता है ।
घटा छायी है सावन की पिया तुम अब तो आ जाओ,
हुआ मुश्किल है रहना अब बदन सारा जकड़ता है ।
जिसे सौंपा था मैने हुश्न अपना मान कर सब कुछ,
वही दिन रात देखो हाय अब मुझसे झगड़ता है ।
कवि कुलवंत सिंह
Wednesday, April 2, 2008
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5 comments:
रश्मि प्रभा said...
बड़े हम जैसे.......
बहुत अच्छी,आपके लेखन में अद्भुत प्रवाह है
सिमट कर आ गये हैं सारे तारे मेरी झोली में,
कहा मुश्किल हुआ संग चांद अब वह तो अकड़ता है
bahut sundar likha hai.
यहां बनकर भी अपना क्यूँ भला कोई बिछड़ता है ।
Bahut khoob! Isi ka naam zindagi hai :-)
bahut hi shandar gazal hai
आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद..
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