जाग जाग है प्रात हुई,
सकुची, लिपटी, शरमाई ।
अष्ट अश्व रथ हो सवार
रक्तिम छटा प्राची निखार
अरुण उदय ले अनुपम आभा
किरण ज्योति दस दिशा बिखार ।
सृष्टि ले रही अंगड़ाई,
जाग जाग है प्रात हुई ।
कण - कण में जीवन स्पंदन
दिव्य रश्मियों से आलिंगन
सुखद अरुणिम ऊषा अनुराग
भर रही मधु, मंगल चेतन
मधुर रागिनी सजी हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।
अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित
धरती अंचल रंजित शोभित
भृंग - दल गुंजन कुसुम - वृंद
पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित ।
उनींदी आँखे अलसाई
जाग जाग है प्रात हुई ।
रमणीय भव्य सुंदर गान
प्रकृति ने छेड़ी मद्धिम तान
शीतल झरनों सा संगीत
बिखरते सुर अलौकिक भान ।
छोड़ो तंद्रा प्रात हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।
उषा धूप से दूब पिरोती
ओस की बूंदों को संजोती
मद्धम बहती शीतल बयार
विहग चहकना मन भिगोती ।
देख धरा है जाग गई
जाग जाग है प्रात हुई ।
-कवि कुलवंत सिंह
Monday, February 4, 2008
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10 comments:
बहुत दिनों के बाद कविता के नाम पर कविता पढने को मिली है,बहुत अच्छे
ਕੁਲਵੰਤ ਜੀ, ਤੁਸੀੰ ਤਾੰ ਦਿਲ਼ ਖੁਸ ਕਰ ਦਿਤਾ ਐ। ਜਿਉੰਦੇ ਵਸਦੇ ਰਹੋ ਜੀ।
Aadarniya Kavi Kulvanthji,
Aapki kavitha prabhat bahut achi hai. padh kar mujhe kafi prerna mili. Mein kal apne students ko is kavtha ke bare mein avshaya bataungi.
Sasneh
C.R.Rajashree
बहुत सुंदर !!
अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित
धरती अंचल रंजित शोभित
भृंग - दल गुंजन कुसुम - वृंद
पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित ।
अद्भुत शब्द और भाव...वाह वाह...कुलवंत जी इतनी सुंदर कविता के लिए बहुत बहुत बधाई..
नीरज
बहुत सुंदर रसपूर्ण कविता है |
बहुत बहुत बधाई
अवनीश तिवारी
बेहतरीन, बहुत बढ़िया.
आप सभी प्रियजनों के शब्दों से हृदय भावविभोर हुआ ।
एक साफसुथरी अच्छी विचारोत्तेजक कविता ।
ਆਦੇਂ ਰਹੇਂਗੇ, ਇਸ ਸਾਇਟਾ ਨੂਁ !
प्रभात का अति मनोरम चित्रण.....
कवि पन्त का प्रकृति - प्रेम स्मरण हो आया,
'प्रथम रश्मि का आना रंगिनी
तुने कैसे पहचाना....
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिनी,
पाया तुने यह गाना'.....
बहुत खूबसूरत वर्णन !
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