Tuesday, December 4, 2007

गज़ल

दीन दुनिया धर्म का अंतर मिटा दे
जोत इंसानी मोहब्बत की जला दे

ऐ खुदा बस इतना तूँ मुझ पर रहम कर
दिल में लोगों के मुझे थोड़ा बसा दे

उर में छायी है उदासी आज गहरी
मुझको इक कोरान की आयत सुना दे

जब भी झाँकू अपने अंदर तुमको पाऊँ
बाँट लूँ दुख दीन का जज़्बा जगा दे

रोशनी से तेरी दमके जग ये सारा
नूर में इसके नहा खुद को भुला दे

कवि कुलवंत सिंह

4 comments:

पारुल "पुखराज" said...

ऐ खुदा बस इतना तूँ मुझ पर रहम कर
दिल में लोगों के मुझे थोड़ा बसा दे

bahut sundar bhaav

अमिताभ मीत said...

कुलवंत भाई, पहली बार आपकी कोई रचना पढी. बहुत पसंद आई. दिली मुबाराक़बाद कुबूल
कीजिये. आप की ग़ज़ल पढ़ के दिल में न जाने क्यों ये आया :

दिल में मेरे भी जले मन्दिर का दीपक
या इलाही मुझ में तू वो लौ लगा दे

Kavi Kulwant said...

पारुल जी एवं मीत जी आप दोनो का बहुत शुक्रिया.. मीत जी.. आपकी पंक्तियां लाजवाब हैं..
खुद को खुदा से जोड़ने वाली... आप को और पढ़ना चाहूंगा..
दिल में मेरे भी जले मन्दिर का दीपक
या इलाही मुझ में तू वो लौ लगा दे

नीरज गोस्वामी said...

कुलवंत जी, एक संवेदनशील इंसान ही इतने अच्छे भाव और शब्द ला सकता है अपनी ग़ज़ल में. बहुत खूब. बधाई.
नीरज