देखता हूँ टकटकी लगाये मैं आसमां की तरफ,
ढूँढ़ता हूँ मिल जाये कहीं एक बादल का टुकड़ा,
जो उड़ता हुआ आ जाये मेरे खेतों की तरफ,
औ उमड़-घुमड़ बरसाये जल की रिमझिम धारा।
सूनी आँखे चमक उठें बदली के आगमन पर,
मयूर मन नाच उठे क्षितिज पर बदली देखकर,
मेरे खेत की प्यासी मिट्टी, असिंचित, करे इंतजार,
बरसा की, जल की बूंदों की, हो कर बेकरार।
उमड़-घुमड़ करती बदली, कभी कर्णभेदी तुमुलनाद,
कभी बदली का वक्ष-वसन चीरती बिजली का आल्हाद,
मन में उठती आशंका, आज कहीं सौदामिनी गिरेगी !
लेकिन फिर डंका बजता, मेरे खेतों की प्यास बुझेगी।
गरजे लेकिन बरसे नहीं, उड़े बदली संदेश लिये,
पुलकित मन हो उदास पुकारे, लौट आ स्वाति बूँद पिये,
सूनी आँखों देखता दूर तक, बदली को ओझल होते,
चिर प्रतीक्षित आकांक्षा को, दिवा-स्वप्न सा टूटते।
एक टीस सी उठती मन में -
’बदली क्यों रूठी मुझसे !
क्या प्यार मेरा अपूर्ण था
यां उसे लगाव किसी गैर से ?’
कवि कुलवंत सिंह
Monday, October 29, 2007
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8 comments:
कवि कुलवंत की काव्य कृति को पढ़ कर मन भाव विभोर हो गया. सुंदर कविता लिखी है आपने. जारी रखें.
कुलवंत जी,
देण वाला तो इक रब है जी... पर प्रोवलम ऐ हेगी कि इक्को जगे ते हर एक दी डिमाण्ड होर जेई है... किसे नू बदल चाहिदा, किसे नू छां..
पर खेंतां दी प्यास बुझणा जरूरी है जी.....वर्ना सारी दुनिया भुखी मर जाऊ...
सुन्दर कविता के लिये बधाई
बहुत बढिया रचना है कुलवंत जी।हमारे देश के ज्यादातर किसान आज भी बादलों के पानी के सहारे ही खेती कर रहें हैं। उन के मन में उठने वाले भावों को बखूबी दर्शाया है।बधाई।
बढ़िया भाव-बढ़िया रचना. बधाई -जरुर बरसेंगे आपने आह्वान जो किया है.
बहुत सुन्दर कविता है ।
घुघूती बासूती
KAVI KULVANT, TOO JODON KE DARD KA KYA ILAZ KARTA HAI, CHOLESTEROL KA BHI BATANA
VIKRAM SAXENA
Sunder rachnaa hai.
Kisaan ki mermvednaa ka gahraai tak ahsaas hai apko.
Likhte rahiye.Sadhanyavad.....
बहुत अच्छा लिखा है. कविता अच्छी लगी.
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