सोने की थाली में यदि
मैं चांदनी भर पाऊँ,
प्रेम रूप पर गोरी तेरे
भर भर हाथ लुटाऊँ।
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हवा में घुल पाऊँ यदि
तेरी सांसो मे बस जाऊँ,
धड़कन हृदय की
वक्ष के स्पंदन मैं बन जाऊँ।
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अलसाया सा यौवन तेरा
अंग अंग में तरुणाई,
भर लूँ मैं बांहे फ़ैला
बन कर तेरी ही अंगड़ाई।
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चंदन बन यदि तन से लिपटूं
महकूँ कुंआरे बदन सा,
मदिरा बन मैं छलकूँ
अलसाये नयनों से प्रीत सा।
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स्वछंद-सुवासित-अलकों में
वेणी बन गुंध जाऊँ,
बन नागिन सी लहराती चोटी
कटि स्पर्श सुख पाऊँ।
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अरुण अधर कोमल कपोल
बन चंद्र किरन चूम पाऊँ,
सेज मखमली बन
तेरे तन से लिपट जाऊँ।
कवि कुलवंत सिंह
Tuesday, May 29, 2007
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5 comments:
सुन्दर लिखा है कुलवन्त भाई,
नये भाव नयी उपमायें.. अहुत अच्छा लगा पढ कर
अलसाया सा यौवन तेरा
अंग अंग में तरुणाई,
भर लूँ मैं बांहे फ़ैला
बन कर तेरी ही अंगड़ाई।
सुंदर रचना है, बधाई.
बहुत सुन्दर रचनाअ है।नयी उपमाओ के साथ।्बधाई
kaafi achha likhte hai aap..
Ajay chauhan
wah kulwant ji, anupam upmaon ke saath madhur geet ke liye badhaai.
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